राजस्थान के कालपुरुष / वक्तवीरों की 7 कहानियां: जिन्होंने वक्त बदलने का इंतजार नहीं किया, वक्त को ही बदल दिया वीर योद्धा पर प्रकाश l संस्कार न्यूज़ ,पवन भार्गव - The Sanskar News

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Wednesday, December 18, 2019

राजस्थान के कालपुरुष / वक्तवीरों की 7 कहानियां: जिन्होंने वक्त बदलने का इंतजार नहीं किया, वक्त को ही बदल दिया वीर योद्धा पर प्रकाश l संस्कार न्यूज़ ,पवन भार्गव


भास्कर के 23 साल पूरे होने पर वक्तवीरों की कहानियां।
                🌷  संस्कार न्यूज़ 🌷

             19 December 2019                    

🌹🌹पवन भार्गव (प्रधान संपादक) शिवपुरी🌹🌹

✍️✍️ - जयपुर.राजस्थान की रज और रग-रग में वक्त को बदलने का जज्बा है। यहां के ऐसे कई लोग हैं, जिन्होंने वक्त बदलने का इंतजार नहीं किया, वक्त को ही बदल डाला। बीकानेर के महाराजा गंगासिंह, जिन्होंने रेगिस्तान में नहर चला दी। नहरी तंत्र ने ही राजस्थान में अकाल के दाग धोए। डॉ.पीेके सेठी, जिनके बनाए पैरों पर दुनिया चल रही है। शंकर सिंह, जिनके संघर्ष से सूचना का अधिकार मिला...। दरअसल, जीत उन्हीं की होती है, जो बहानों के लिबास को उतार फेंक देते हैं।भास्कर के 23 साल पूरे होने पर ऐसेही वक्तवीरों की ऐसी ही 7 कहानियां।पढ़िए कपिल भट्‌ट, बाबूलाल शर्मा, प्रेरणा साहनी, संजीव गर्ग, लोकेन्द्र सिंह तोमर की रिपोर्ट...

  • महाराजा गंगासिंह: रेगिस्तान को गंगा से नहला दिया

    महाराजा गंगासिंह: रेगिस्तान को गंगा से नहला दिया

    महाराजा गंगासिंह, बीकानेर

    चुनौती: महाराजा गंगासिंह के शासनकाल में 1899-1900 का बदनाम छपनिया अकाल पड़ा। संघर्ष: महाराजा ने सोचा...अकाल को हराने के लिए रेगिस्तान में पानी लाना होगा। महाराजा ने ब्रिटिशराज से लंबी कागजी-कानूनी लड़ाई लड़ी। चमत्कार: 1912 में नहर की योजना बनी। 1920 में पंजाब, बहावलपुर, बीकानेर रियासत में सतलुज समझौता। 5 दिसंबर 1925 में हुसैनीवाला में नींव डली। 26 अक्टूबर 1927 को शिवपुर हैड से नहर चली। रेगिस्तान की सदियों की प्यास बुझी।


    राज्यश्री, महाराजा गंगा सिंह की पौत्री बता रही हैं उनके संघर्ष की कहानी...

    कानेर के महाराजा गंगासिंह ने 21 साल के संघर्ष के बाद सदियों से अकाल भोग रहे रेगिस्तान में गंगा बहा दी। इसके लिए उन्हें देशी रियासतों और अंग्रेजों से लंबा संघर्ष करना पड़ा। पंजाब की सतलुज से बीकानेर तक गंग कैनाल का प्लान उन्हीं ने बनाया, पास कराया और हुसैनवाला से शिवपुरी तक 129 किमी लंबी नहर बना दी। यह उस समय दुनिया की सबसे लंबी नहर थी। गंगनहर से लगभग 30 लाख हैक्टेयर जमीन की सिंचाई होती है। 


    1899-1900 में राजस्थान का सबसे बदनाम छपनिया अकाल पड़ा। एक अनुमान के मुताबिक उस अकाल में लगभग पौने 2 करोड़ लोगों की मौत हुई थी। लोगों को भूख-प्यास से तड़पते देख महाराजा ने रेगिस्तान में पानी लाने की योजना बनाई। महाराजा ने एक अंग्रेज इंजीनियर को नियुक्त किया और सरकार को नहर का प्रस्ताव दिया।

    पंजाब के चीफ इंजीनियर आरजी कनेडी ने 1906 में सतलुज वैली प्रोजेक्ट की रूपरेखा तैयार की, लेकिन बहावलपुर रियासत बीकानेर को पानी देने का विरोध कर रही थी। इसके बाद ये योजना अटक गई। हालांकि पंजाब के गवर्नर सर डैंजिल इबटसन की पहल पर 1912 में कैनाल की योजना बनी। लेकिन इसी बीच पहला विश्व युद्ध शुरू हो गया। आखिर काफी प्रयासों के बाद 4 सितंबर 1920 को पंजाब, बहावलपुर और बीकानेर रियासत में सतलुज घाटी प्रोजेक्ट का समझौता हुआ। महाराजा ने 1921 में गंग नहर की नींव रखी। तब नहर बनाने पर 8 करोड़ रुपए खर्च हुए। 26 अक्टूबर 1927 को नहर का काम पूरा हुआ।


    आगे की सोच: महाराजा ने 1922 में हाईकोर्ट बनाई, जिसमें मुख्य न्यायाधीश के अलावा 2 न्यायाधीश नियुक्त किए। बीकानेर ऐसा करने वाली पहली रियासत थी। 1913 में चुनी हुई जनप्रतिनिधि सभा का गठन किया। रियासत के कर्मचारियों के लिए ‘एंडोमेंट एश्योरेंस स्कीम’ और जीवन बीमा योजना लागू की, निजी बैंकों की सेवाएं आम नागरिकों को भी मुहैय्या करवाईं। बाल-विवाह रोकने के लिए शारदा एक्ट कड़ाई से लागू किया।

  • हीरालाल शास्त्री: बेटियों की आधुनिक शिक्षा के पहले पैराेकार

    हीरालाल शास्त्री: बेटियों की आधुनिक शिक्षा के पहले पैराेकार

    हीरालाल शास्री, बनस्थली

    सोच: बेटियां आजाद क्यों ना रहें? उनका आवासीय स्कूल हो। पहनावा लड़कियां खुद तय करें।  सफर: 1920 में संस्कृत शास्त्री की उपाधि मिली। जयपुरराज में गृह व विदेश सचिव रहे। 1927 में नौकरी छोड़ी। 1929 में जीवन कुटीर संस्था बना वस्त्र स्वावलंबन से जुड़े। मंजिल: 1935 में बनस्थली में बेटी शांता की याद में शांताबाई शिक्षा कुटीर बालिका आवासीय स्कूल खोला। यही स्कूल बाद में सबसे बड़ी गर्ल्स बोर्डिंग यूनिवर्सिटी बन गया।

    आदित्य शास्त्री, हीरालाल शास्त्री के बेटे बता रहे हैं उनकी जिद और अनछुए पहलू...


    पीवी सिंधु, निर्मला सीतारमण व मैरीकॉम के युग में भी बालिका शिक्षा व स्वावलंबन को हम पूरे तरीके से हासिल नहीं कर पाए हैं। आज से 85 साल पहले, अंग्रेजों की पराधीनता के दौरान पर्दा, सती जैसी कुप्रथाओं के बीच बालिकाओं को पढ़ाने और उन्हें स्वावलंबी बनाने की सोच रखने वाले शख्स को आप क्या कहियेगा। ऐसे ही भविष्यदृष्टा थे हीरालाल शास्त्री। वैसे तो वे स्वतंत्रता सेनानी व प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री भी थे। लेकिन उनकी पहचान बालिका शिक्षा के पुरोधा के तौर पर ही होती है। उन्होंने सबसे बड़ी गर्ल्स यूनिवर्सिटी बनस्थली की स्थापना की।


    गांधीजी कहते थे लड़वैया : शास्त्रीजी धुन के ऐसे धनी थे कि जो सोच लिया वह करके ही छोड़ते। गांधीजी के पक्के अनुयायी थे, लेकिन उनके मना करने के बावजूद बनस्थली विद्यापीठ खोली। जमनालाल बजाज व जीडी बिड़ला की राय थी यह काम व्यापारियों का है। विनोबा भावे जैसे महामना की मनाही के बाद भी बनस्थली में वस्त्र स्वावलंबन के लिए जीवन कुटीर शुरू की। इसीलिए महात्मा गांधी उनको लड़वैया कहते थे। उनकी पत्नी रतन शास्त्री ने इस काम को आगे बढ़ाया जिसके लिए उनको भारत सरकार ने पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित किया।


    किसान, स्वाधीनता सेनानी, शिक्षाविद, मुख्यमंत्री बने : जोबनेर के एक किसान परिवार में 24 नवंबर 1899 को पैदा हुए हीरालाल जोशी। 1920 में संस्कृत में शास्त्री की उपाधि भी हासिल कर ली। सो हो गए हीरालाल शास्त्री। शास्त्रीजी 1939 से प्रजामंडल की ओर से स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े।  30 मार्च, 1949 को राजस्थान राज्य बना तो वे पहले मुख्यमंत्री बने। रियासतों के विलय और प्रशासनिक कार्यों में उन्होंने अपनी प्रतिभा दिखाई। उन्होंने बनस्थली को इतनी ऊंचाई पर पहुंचाया कि पं. नेहरू बनस्थली आए तो कह उठे- यदि मैं लड़की होता तो अपनी तालीम के लिए यहीं आता। बनस्थली ने लाखों गर्ल्स को शिक्षित व स्वावलंबी बनाने के साथ ही कई प्रतिभाएं भी दी हैं।

  • जमनालाल बजाज: मोहनदास को गांधी बनाने वाले चाणक्य

    जमनालाल बजाज: मोहनदास को गांधी बनाने वाले चाणक्य

    जमनालाल बजाज, सीकर

    सेवा: मारवाड़ी व्यापारी जमनालाल बजाज राजस्थान से निकले। पूरा भारत घूमा। जनता पर ब्रिटिश हुकूमत की ज्यादतियां देखीं। सेवा की सोच पनपी। गांधीजी से जुड़े। आंदोलन: जयपुर प्रजामंडल अध्यक्ष रहते राजशाही के िखलाफ आंदोलन छेड़ा। मारवाड़ियों को साथ लेकर बंगाल में अंग्रेजों की खिलाफत की। लंबे समय तक जेल में रहे।     गांधी जी को सिखाया: गांधी जी के पांचवें पुत्र कहलाए। खादी, ग्राम उद्योग, अस्पर्शता निवारण, बुनियादी शिक्षा पर गांधी जी के समान सोच, उनके मार्गदर्शक बने।

    सुभद्र कुमार पाटनी, जमनालाल के निजी सचिव बता रहे हैं बदलाव की कहानी

    माररवाड़ी जमनालाल बजाज। मोहनदास को गांधी बनाने वाली शख्सियत। अंग्रेज भी मानते थे कि अगर जमनालाल बजाज को महात्मा गांधी से अलग कर दिया जाए, तो उनके 90 फीसदी आंदोलन फेल हो जाएंगे। इसका जिक्र अंग्रेजी हुकूमत के खुफिया पत्रों में भी मिलता है। ऐसा ही एक पत्र 27 अगस्त 1930 को बंगाल सरकार के वरिष्ठ अधिकारी एएच गजनवी ने वायसराय को लिखा था। तब जमनालाल बजाज आजादी के आंदोलन में सक्रिय मारवाड़ी व्यापारियों के अग्रदूत थे। वे गांधी और देशसेवा में समर्पित थे।


    कहा जाता है कि महात्मा गांधी का कोई भी वर्णन जमनालाल बजाज के बिना अधूरा है। वे गांधी के पांचवें पुत्र माने जाते थे। बजाज के निधन के बाद खुद गांधीजी ने लिखा- ‘जमनालालजी मेरे पांचवें पुत्र बने। मैं कह सकता हूं कि इससे पहले किसी को ऐसा पुत्र नसीब नहीं हुआ होगा। शायद ही ऐसा कोई काम होगा, जिसमें मुझे उनका हार्दिक सहयोग न मिला हो और जो अत्यंत कीमती साबित न हुआ हो। मेरे लिए वही मेरी कामधेनु थे।’ गांधीजी ने यह भी बताया- जब कभी मैंने लिखा कि धनवानों को सार्वजनिक हित के लिए अपनी संपत्ति का ट्रस्टी बन जाना चाहिए तो मेरे दिमाग में जमनालालजी का उदाहरण मुख्य रहा।


    सीकर से शिखर तक: जमनालाल का जन्म राजस्थान में सीकर के काशी का बास गांव में 4 नवंबर 1889 को हुआ था। वे वर्धा के सेठ वच्छराजजी के यहां गोद चले गए। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, मदन मोहन मालवीय, रबींद्रनाथ टैगोर आदि के सम्पर्क में आए, लेकिन जुड़े गांधी जी से। यहीं से दोनों के बीच पिता-पुत्र का रिश्ता कायम हुआ।


    ब्रिटिश हुकूमत को लौटाया राय बहादुर खिताब: जमनालाल बजाज ही गांधीजी को अहमदाबाद से वर्धा ले गए। गांधीजी ने बजाज की निजी संपत्ति सेवाग्राम को अपना आश्रम बनाया। युवावस्था में अंग्रेजों का दिया राय बहादुर खिताब लौटाने वाले बजाज जयपुर में प्रजामंडल अध्यक्ष रहे और यहां की राजशाही के खिलाफ बड़े आंदोलन का नेतृत्व किया। 97 वर्षीय सुभद्र कुमार बताते हैं- प्रजामंडल की स्थापना मेरे पिताजी कपूर्रचंद्र पाटनी ने 1932 में तब की थी जब जयपुर रियासत ने अनाज पर टैक्स लगा दिया था।

    फतेहटीबा पर जनसभा में प्रजामंडल का गठन हुआ। प्रजामंडल आंदोलन के दौरान रियासत ने जमनालाल को पुराने घाट की बगीची में लंबे समय तक नजरबंद रखा। मैं बनारस में बीफार्मा पास करके जब जयपुर आया तो बजाज मुझे जयपुर से वर्धा ले गए। मैं जानकी कुटीर में लंबे समय तक उनके साथ रहा। बजाज ने खादी, ग्रामोद्योग, छुआछूत निवारण, हिन्दू-मूस्लिम एकता, राष्ट्रभाषा प्रचार, बुनियादी शिक्षा के लिए उन्होंने जीवन भर काम किया।

  • डीआर मेहता: जयपुर फुट के जनक

    डीआर मेहता: जयपुर फुट के जनक

    डीआर मेहता, जयपुर

    बड़ा कदम: एसएमएस अस्पताल के अस्थिरोग विभाग में दिव्यांगों को देख डॉ.पीके सेठी और उनकी टीम ने जयपुर फुट की कल्पना की। लगातार प्रयोग के बाद 1969 में पहली बार ऐसा पैर बनाया, जिससे दिव्यांग चल सकें। डॉ. सेठी को मेग्सेसे और पद्मश्री से नवाजा जा चुका है, जबकि पूर्व आईएएस डीआर मेहता ने जयपुर फुट में और बदलाव कर इसे दुनियाभर में पहुंचाया। डीआर मेहता और उनकी टीम अब तक 18 लाख दिव्यांगों को कृत्रिम अंग लगा चुकी है।

    डीआर मेहता, जयपुर फुट के सबसे बड़े सिपाही बता रहे हैं पैर बनने से दुनिया के चलने की पूरी कहानी

    जयपुर फुट एक ऐसा अविष्कार है, जिसने किसी हादसे में पैर गंवा चुके लाेगाें काे फिर संभलने और जीने का सहारा दिया। आज दुनियाभर में भगवान महावीर विकलांग सहायता समिति के जयपुर फुट की वजह से 6.15 लाख लोग न केवल चल पा रहे हैं बल्कि दाैड़ रहे हैं, पेड़ाें-पहाड़ाें पर चढ़ रहे हैं।

    एसएमएस हॉस्पिटल में डाॅ. पीके सेठी, डाॅ. एससी कासलीवाल, डाॅ. महेश उदावत और क्राफ्ट मास्टर रामचंद्र शर्मा की टीम ने जयपुर फुट को फाइनल टच दिया था। इसमें रामचंद्र शर्मा की भूमिका सबसे अहम थी, जाे डाॅ. सेठी के सहायक थे। रामचंद्र ने एक पंचर ठीक करवाते हुए रबर के इस्तेमाल से लचीला आर्टिफिशियल फुट तैयार करने का मूल विचार आया और उन्होंने सबसे पहला जयपुर फुट/ लिंब बनाकर डाॅ. सेठी को दिखाया। इसके बाद तीन डाॅक्टरों के साथ राम चंद्र की टीम बनी।

    कुछ साल बाद रामचंद्र पूर्व आईएएस डीआर मेहता से जुड़े। 1969 में कार एक्सीडेंट में घायल हाेने के बाद डाॅ. डीआर मेहता 5 महीने तक हाॅस्पिटल में रहे। तब मेहता काे ख़याल आया कि अगर ऐसे ही हादसे में गरीब और असहाय लाेगाें काे पैर गंवाना पड़े ताे वाे कहां जाएंगे। इसी काे देखते हुए उन्हाेंने 6 साल बाद 1975 में भगवान महावीर विकलांग सहायता समिति की स्थापना की।

    मेहता के नेतृत्व में ये समिति सितंबर 2019 तक 18 लाख दिव्यांगाें का फ्री रीहैबिलिटेशन कर चुकी है, जिनमें से 95 फीसदी गरीबी रेखा से नीचे हैं। इनमें से 6.15 लाख से ज्यादा लाेग फ्री जयपुर फुट की वजह से सामान्य जीवन बिता रहे हैं। समिति, पाकिस्तान, इराक, नाइजीरिया सहित 33 देशाें में लगभग 79 कैंप लगा चुकी है। भारत सरकार ने बीएमवीएसएस के साथ 15 देशों में आर्टीफिशियल लिंब के कैम्प लगाने का अनुबंध किया। यही नहीं एमआईटी और स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी जयपुर फुट की टेक्नोलॉजी काे लगातार सुधारने के लिए इस समिति के साथ काम कर रही हैं।

    मैनेजमेंट गुरु सीके प्रहलाद ने अपनी किताब “ द फाॅरच्यून एट द बाॅटम ऑफ द पिरामिड’ में 2002 में लिखा था कि बीएमवीएसएस के आर्टिफिशियल लिंब की लागत 30 डाॅलर है जबकि अमेरिका में लिंब की लागत 8000 डाॅलर है। जयपुर फुट की लागत लगभग 70 डाॅलर है, लेकिन यह दिव्यांगाें काे मुफ्त लगाया जाता है। टाइम मैगजीन ने 2009 में दुनिया के जयपुर नी काे 50 श्रेष्ठ अविष्काराें की सूची में शामिल किया था।

  • शंकर सिंह: शासन को जनता का उत्तरदायी बना दिया

    शंकर सिंह: शासन को जनता का उत्तरदायी बना दिया

    शंकर सिंह, राजसमंद

    शोषण: रामलीला का जोकर, पकौड़ी वाला और कठपुतली कलाकार...मजदूरों का शोषण नहीं सह पाया। 1989 में मस्टररोल में 11 रुपए भरकर 3 रुपए मिले तब लड़ाई शुरू। लड़ाई: मस्टररोल की कॉपी मांगी। नहीं मिली तो 40 दिन ब्यावर फिर 52 दिन जयपुर में धरना। तब मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत ने सूचना देने का वादा किया, निभाया नहीं।     जीत: 2001 में सूचना का राष्ट्रीय अभियान गठित किया। 2002 में सरकार को फ्रीडम ऑफ इन्फॉर्मेशन बिल लाना पड़ा। यही बिल आगे जाकर आरटीआई का दस्तावेज बना।

    शंकर सिंह बता रहे हैं कैसे मिला सूचना का हक

    आरटीआई की लड़ाई राजस्थान में से शुरू हुई थी। राजसमंद के देवडूंगरी की छोटी सी झोपड़ी में रहने वाले शंकर सिंह पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने सरकारी रिकॉर्ड को सार्वजनिक करने की लड़ाई शुरू की। 1988-89 में न्यूनतम मजदूरी 11 रुपए तय थी, मजदूरों के हाथ में 3 रुपए दे रहे थे। शंकर ने मस्टररोल की कॉपी मांगी, कलेक्टर ने कहा- गोपनीय दस्तावेज है। नहीं मिलेगा। यहीं से सूचना के हक की लड़ाई शुरू हुई। ब्यावर में 40 दिन, फिर जयपुर में 52 दिन धरना पड़ा। तब के मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत ने सरकारी सूचना देने का वादा किया, निभाया नहीं। अब जनांदोलन चला।

    नतीजा- 2002 में प्रदेश सरकार को फ्रीडम ऑफ इंफॉर्मेशन बिल लाना पड़ा। यह सूचना के अधिकार की तरफ पहला कदम था। 2003 से अरुणा राय, निखिल डे और शंकर सिंह के नेतृत्व में देशभर में सूचना का अधिकार लागू करने की मांग उठी। 2005 में केंद्र सरकार ने राजस्थान के फ्रीडम ऑफ इंफॉर्मेशन को आधार बनाकर राइट टू इंफॉर्मेशन बिल लागू किया।

    विदूषक से मजदूरों की आवाज बने : अजमेर केे लोटियाणा गांव में जन्मे शंकर सिंह ने गरीबी देखी। पकौड़ीवाला, केरोसिनवाला, रामलीला का कॉमेडियन और कठपुतली कलाकार शंकर श्रमिकों का शोषण देख क्रांतिकारी बने। सामाजिक कार्यकर्ता खेमराज चौधरी, अरुणा राय और निखिल डे से जुड़े। इनका यह साथ 43 साल का हो गया है।

    तिलोनिया के बाद अरुणा राय और निखिल डे ने मध्यप्रदेश के झाबुआ में काम करने का फैसला किया, लेकिन शंकर सिंह उन्हें लेकर भीम से आठ किलोमीटर दूर देवडूंगरी आ गए। यहीं से मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) का उदय हुआ, जिसके बैनर तले अकाल राहत कार्यों में न्यूनतम मजदूरी पर आंदोलन चलाया गया। देवडूंगरी की झोंपड़ी में रहने वाले शंकर सिंह के गीत-नाटक देश ही नहीं विदेश में भी कई मंचों पर धाक जमा चुके हैं।

  • जसदेव सिंह: इनकी कमेंट्री इंदिरा गांधी की भी धड़कनें बढ़ा देती थी

    जसदेव सिंह, जयपुर

    आवाज: जसदेव सिंह ने जयपुर आकाशवाणी से शुरुआत की। आवाज में तेजी, उत्साह और गजब की कशिश। आकर्षण: कमेंट्री गुरु मेल्विन डिमेलो ने 1964 के टोक्यो ओलंपिक में हिन्दी कमेंट्री का प्रस्ताव दिया।  असर: रेल में दृष्टिहीन मिला। आवाज सुनकर बोला- जसदेव हैं आप? आवाज ही चेहरा बन गया। 15 मार्च 1975 में मलेशिया हॉकी विश्वकप भारत जीता। इंदिरा गांधी ने जसदेव से कहा- आप बोलते हो तो धड़कनें बढ़ जाती हंै। संसद की कार्यवाही रुकवाकर आपकी कमेंट्री सुनी है।

    गुरदेव सिंह, जसदेव सिंह के पुत्र बने हैं आज पापा की आवाज  


    जसदेव सिंह बोल रहा हूं। 1955 में जयपुर रेडियो से पहली बार निकली ये आवाज अगली आधी सदी तक पूरे भारत में गूंजती रही। उर्दू और अंग्रेजी माध्यम से पढ़े जसदेव ने हिंदी कमेंट्री को एक नई पहचान दी। जसदेव कभी कोई खेल नहीं खेले, लेकिन रेडियो पर उनकी स्पोर्ट्स कमेंट्री सुनने के लिए लोग टीवी तक बंद कर दिया करते थे।

    1975 में मलेशिया हॉकी विश्वकप में भारत चैंपियन बना। टीम प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिली। इंदिरा ने तब जसदेव से कहा- आप इतना तेज कैसे बोल लेते हैं। आपकी कमेंट्री सुनने के लिए मैंने संसद की कार्यवाही रुकवा दी। दिल्ली में हुए 1982 के एशियाड में एक मैच के दौरान इंदिरा गांधी ने जसदेव सिंह से कहा था-आप जब कमेंट्री करते हैं तो मेरे दिल की धड़कन बढ़ जाती है।”


    बौंली सवाईमाधोपुर के जसदेव ने जयपुर आकाशवाणी में 7 साल अपनी आवाज दी। फिर  दिल्ली चले गए। जसदेव को 1964 टोक्यो ओलिंपिक की कमेंटरी का प्रस्ताव अपने कमेंट्री गुरु मेल्विल डिमेलो से ही मिला। उन्होंने उस समय इंदिराजी से कहा था कि अब हिंदी कमेंट्री का समय आ गया है। एक सरदार है अच्छी कमेंट्री करता है, उसे भेजो।

    इसके बाद 2004 तक ओलिंपिक में कमेंट्री की। हॉकी उनका पसंदीदा खेल था। वे अकेले ऐसे कमेंटेटर हैं जिन्हें ओलिंपिक ऑर्डर से सम्मानित किया गया। एक बार जसदेव अपने परिवार के साथ ट्रेन से सफर कर रहे थे। उनकी आवाज सुनकर एक नेत्रहीन ने उनको पहचान लिया।

  • सलीम दुर्रानी: 50 साल पहले लिख दिया था आज का क्रिकेट शास्त्र

    सलीम दुर्रानी: 50 साल पहले लिख दिया था आज का क्रिकेट शास्त्र

    आप शायद किसी ऐसे क्रिकेटर को नहीं जानते होंगे जो 50 साल आगे के क्रिकेट अंदाज में खेलता हो? आज हम उस क्रिकेटर के बारे में बताते हैं, जो अपने जमाने से पूरी आधी सदी आगे थे। वक्त बदलने वाली वो अजीम शख्सियत हैं क्रिकेटर सलीम दुर्रानी। विस्फोटक बल्लेबाजी की उनकी शैली बरसों बाद वनडे एवं टी-20 क्रिकेट की शुरुआत के बाद समझ आई।

    स्टेडियम में बैठी पब्लिक में जिस ओर से आवाज आती, वे उसी जगह छक्का लगाया करते था। इस मुकाम तक पहुंचने के लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की। पहले टेस्ट में उन्हें 10वें नंबर पर बल्लेबाजी दी गई। हालांकि उन्होंने छोटी सी पारी में प्रतिभा का की झलक दिखला दी थी। 26 रन की साझेदारी में 18 रन उन्हीं के थे। इसी हार्ड हिटिंग के बल पर उन्होंने फर्स्ट डाउन बैट्समैन तक का सफर तय किया। एक तरह से उन्होंने 1960-70 के दशक में आधुनिक क्रिकेट की नींव रख दी थी। वे बाएं हाथ के बल्लेबाज के साथ बाएं हाथ के स्पिनर भी थे।


    अफगानिस्तान में जन्मे, राजस्थान से चमके : अफगानिस्तान के दुर्रानी गुजरात के जामनगर आ बसे थे। उन्होंने गुजरात, सौराष्ट्र व राजस्थान से घरेलू क्रिकेट खेली।  एक बार उन्हें कानपुर टेस्ट से बाहर कर दिया गया तो क्रिकेटप्रेमी उबल पड़े- ‘नो दुर्रानी, नो टेस्ट’। मजबूरन उन्हें टीम में लेना पड़ा। दुर्रानी को क्रिकेट का प्रिंस भी कहते हंै। उदयपुर महाराणा ने भी उन्हें प्रिंस की तरह ही रखा। दुर्रानी बताते हैं- जब तक मैं राजस्थान से खेला, महाराणा ने मुझे अपने महल में ही रखा। वे अर्जुन अवार्ड से सम्मानित पहले क्रिकेटर भी हैं।

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