मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार पर अनिश्चितता के बादल, चुकानी पड़ सकती है बड़ी कीमत

यह सत्य है कि सरकारें विधायकों के बहुमत से बनती हैं और चलती हैं, लेकिन सत्ता की लड़ाई में ऐसी भी सरकारें बन जाती हैं जिनके पास बहुमत होता तो है, मगर उसके प्रदर्शन की ताकत नहीं रहती। ऐसी सरकारें बहुमत का ढिंढोरा पीटती हैं, लेकिन असल में वे खतरे के पायदान पर खड़ी रहती हैं। मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। सरकार बहुमत से बनी है और जैसे-तैसे चल भी रही है, पर उसकी स्थिरता का भरोसा किसी को नहीं है। सरकार के प्रबंधकों को भी यह भरोसा शायद ही हो कि सरकार पांच साल के लिए स्थिर है। पिछले एक सप्ताह के घटनाक्रम ने साफ कर दिया है कि कमलनाथ सरकार का भविष्य अनिश्चित है। उसे अपनी सुरक्षा के लिए भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। सरकार रहेगी या जाएगी, यह राज्यसभा चुनाव में ही तय हो जाएगा।
वास्तव में कांग्रेस की यह सरकार गंभीर खतरे में है। यह खतरा अंदर और बाहर दोनों तरफ से है। लोकतंत्र में लगभग सभी राजनीतिक दलों का लक्ष्य सरकार बनाकर सत्ता प्राप्त करना होता है। वे इसके लिए हर जतन करने को तैयार रहते हैं, लेकिन जोड़-तोड़ वाले दौर में सरकार बनाना और उसे पांच साल तक चलाना दो अलग-अलग विषय हैं। कांग्रेस ने मध्य प्रदेश की सत्ता में 15 साल का वनवास खत्म करने के लिए जिस जोड़-तोड़ से सरकार बनाई वही अब उसे भारी पड़ने लगा है। प्रदेश की राजनीति अस्थिरता की चपेट में आ गई है। सरकार बचाने-बनाने के खेल में विधायकों को तोड़ने-जोड़ने की जो कोशिशें हो रही हैं, उसमें सिर्फ राजनीतिक दल ही शामिल नहीं रह गए हैं, बल्कि प्रकारांतर से सत्ता प्रतिष्ठान भी शामिल हो गया है।
यही कारण है कि विकास और सरकार के सामान्य कामकाज पर राजनीतिक धड़ेबंदी का असर पड़ा है। बजट बनाने में जुटी सरकार सिर्फ अधिकारियों के सहारे रह गई है। सरकार पर संकट के बादल ने नौकरशाही को भी प्रभावित किया है। याद करें वह दिन जब लगभग सवा साल पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस बड़े दल के रूप में उभरी थी। उसे सरकार बनाने में इसका लाभ मिला था। दूसरे नंबर पर रही भारतीय जनता पार्टी ने भी सरकार में बने रहने के लिए दम लगाया था, पर नैतिक बल में वह कांग्रेस से कमजोर पड़ गई। यही वजह है कि जोड़-तोड़ में कांग्रेस ने भाजपा को मात दे दी थी। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ बड़े सियासी प्रबंधक बनकर उभरे।
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