संस्कार न्यूज़
पवन भार्गव प्रधान संपादक
15 नवंबर 2019
विलुप्तप्राय 32 औषधीय

भोपाल। प्रदेश में पाई जाने वाली 216 प्रजातियों में 32 लुप्त प्राय होने की कगार में आ गई है। प्रकृति संवर्धन में महत्व को देखते हुए वन विभाग इनको बचाने में जुट गया है। यह प्रयास नर्सरियों में पौधे तैयार करने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह दहिमन, शल्यकर्णी और मेदा जैसे औषधीय पौधों के मामले में जंगल में रोपण और संरक्षण तक पहुंच गया है।
दरअसल विगत कई वर्षों में हुए शोध और अध्ययन में प्रदेश के वन क्षेत्रों में मौजूद लगभग 216 वृक्ष प्रजातियों में 32 को संकटापन्न और दुर्लभ स्थिति में पाया गया हैं। इनमें 14 संकटापन्न और 18 विलुप्ति की कगार पर आ गई है। जबकि यह औषधीय महत्व की है और यह वनवासियों की परम्पराओं और रीति-रिवाजों से भी जुड़ी है। लिहाजा वन विभाग के अनुसंधान एवं विस्तार इकाई ने इनके महत्व को देखते हुए संवर्धन की कार्ययोजना बनाई है। जिसमें रोपणियों में तैयार हुए दुर्लभ प्रजाति के पौधों को जंगल में रोपना भी शामिल है। इस कड़ी में 40 लाख पौधे रोपणियों में तैयार कर सभी वनमंडलों में भेजे गए हैं। इसके अलावा विभाग समय-समय पर आयोजित होने वाली कार्यशालाओं में भी आम जनता को इन पौधों महत्व बताने में जुटा हुआ है। जिससे लोग अपने घरों में भी लगाने के लिए भी प्रेरित हों रहे हैं।
अत्यधिक खतरे में है दहिमन
वन विभाग ने औषधीय प्रजातियों में प्रदेश में 3 दहिमन, शल्यकर्णी और मेंदा को अत्यधिक खतरे वाली प्रजाति में रखा गया है। जबकि सोनपाठा, गरूड वृक्ष, बीजा और लोध को खतरे की श्रेणी में रखा गया है। इतना ही नहीं 7 पौधे जिसमें कुंभी, गबदी, केकड़, पाडऱ, कुल्लू, रोहिना और शीशम संवेदनशील श्रेणी में चले गए हैं। धवा, सलई, भिलमा, गधा पलाश, धनकट, कुचला, अंजन, मोखा, तिन्सा, खरहर, भेडार, अचार, कुसुम, भुडकुट, हल्दू, खाटाम्बा और बड़ प्रजाति को दुर्लभ और खतरे के नजदीक माना गया है।
संवेदनशील श्रेणी
कुंभी, गबदी, केकड़, पाडऱ, कुल्लू, रोहिना और शीशम
दुर्लभ और खतरे के नजदीक
धवा, सलई, भिलमा, गधा पलाश, धनकट, कुचला, अंजन, मोखा, तिन्सा, खरहर, भेडार, अचार, कुसुम, भुडकुट, हल्दू, खाटाम्बा और बड़
चराई बरबादी का बड़ा कारण
अस्तित्व के लिए लड़ाई लडऩे वाले इन औषधीय पौधों के समाप्त होने के पीछे जंगल में चराई को सबसे बड़ा कारण बताया जाता है। इसके अलावा उम्र पार कर चुके पुराने वृक्षों की देखभाल और इनके स्थान पर नए पौधों के रोपण के प्रति लापरवाही को भी जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। क्योंकि बीते दो दशक में विभागीय अधिकारियों ने साल और सागौन जैसे वृक्षों पर ही ध्यान दिया है।
भोपाल में तैयार हुए 2.50 पौधे
मुख्य वन संरक्षक अनुसंधान एवं विस्तार वृत्त भोपाल रवींद्र सक्सेना ने बताया कि लुप्तप्राय अवस्था में आई औषधीय प्रजाति के पौधों के संरक्षण और संवर्धन की कार्ययोजना पर विभाग काम कर रहा है। बिना किसी अतिरिक्त बजट के बीते 2 सालों में ही करीब 40 लाख पौधे तैयार किए गए। अकेले भोपाल वृत्त ने 2.50 लाख पौधे तैयार किया है। जंगलों में इनके रोपण के साथ ही इनके प्रति जागरूकता लाने पर भी ध्यान दिया जा रहा है।
इसलिए है इनका महत्व
दहिमन: स्त्री रोग, रक्त विकार, ह्रदय विकार, रक्तदाब, चर्मरोग और विष विकार में किया जाता है। मेंदा छाल और पत्ती का प्रयोग कैंसर, ह्रदय रोग, बवासीर, हड्डी टूटना और पशु रोग में होता है।
शल्यकर्णी वृक्ष: महाभारत के युद्ध में की पत्तियाँ सैनिकों के घाव भरने के काम आई। इसकी छाल और पत्ती शारीरिक दर्द, मधुमेह, बवासीर, गंजापन और कैंसर जैसी बीमारियों में उपयोगी
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